साध्वी प्रमुखा सरदारांजी

(प्रथम साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा सरदारांजी का जीवन साहस और शक्ति की एक अद्भुत कहानी है। आपका जन्म संवत् 1865 के आश्विन मास में चूरू में हुआ था। आपके पिता का नाम जेतरूपजी कोठारी और माता का नाम श्रीमती चंदना देवी था। आपका ससुराल फलोदी, चूरू, राजस्थान में था, जहाँ आपका विवाह जोरावरमलजी ढडढ़ा से दस वर्ष की अल्पायु में हुआ था। विवाह के मात्र चार मास बाद ही आपके पति का स्वर्गवास हो गया, जिससे आपका मन विरक्त हो गया।

आपका प्रथम संपर्क चंद्रभाणजी के शिष्य शिवराजजी से हुआ, और बाद में आप ऋषिराय महाराज से चूरू में मिलीं, जहाँ आपकी व्याख्यान श्रवण, पौषधोपवास एवं तत्व चर्चा में विशेष रुचि जागी। संवत् 1887 में जीत मुनि के चातुर्मास के दौरान आपने तेरापंथ की गुरु धारणा स्वीकार की और आपकी वैराग्य भावना उत्तरोत्तर बढ़ती गई। आपने धूप में बैठकर चार सामायिक, शीतकाल में एक ओढ़नी में तीन-तीन सामायिक, 12 वर्ष की उम्र से आजीवन रात्रि चौविहार (अन्न-जल का त्याग) का पालन किया। आपने सचित्त पानी का त्याग, प्रत्येक चतुर्दशी का उपवास, खुले मुंह बोलने का त्याग, एक वर्ष तक बेले-बेले का चौविहार तप (आयम्बिल के साथ) और प्रतिमाह एक चोला तथा एक पंचोला चौविहार का कठोर तप किया। एक बार आपने दस दिनों का चौविहार तप भी किया।

जब जयाचार्य का संवत् 1896 में चूरू में चातुर्मास हुआ, तो आपकी दीक्षा लेने की भावना प्रबल हो गई। तेरापंथ में परिवार की अनुमति के बिना दीक्षा नहीं होती, अतः आपने अपने ज्येष्ठ भाई-ससुर बादरमलजी से अनुमति मांगी, पर वे किसी भी शर्त पर तैयार नहीं हुए। आपने संकल्प लिया कि अनुमति मिलने तक उनके घर का अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी। अनुमति न मिलने पर आपने स्वयं केश लुंचन कर साध्वी का वेश धारण कर कमरे में बैठ गईं। अंततः, नौ दिनों के अनशन और दादी तथा जेठानी के सहयोग के बाद, बादरमलजी को आज्ञा पत्र लिखना पड़ा। आपकी दीक्षा संवत् 1897 मृगसर कृष्णा चौथ के दिन उदयपुर में युवाचार्य जीतमलजी द्वारा संपन्न हुई। आप ऐसी असाधारण साध्वी थीं, जिन्हें केश लुंचन स्वयं अपने हाथों से करने की अनुज्ञा दी गई। दीक्षित होते ही ऋषिराय महाराज ने आपको अग्रगण्या बना दिया। आपकी संयम-निष्ठा, गुरु-निष्ठा, संघ-निष्ठा और लक्ष्य-निष्ठा ने आपके व्यक्तित्व को एक नई पहचान दी। जयाचार्य ने संवत् 1910 में आपको साध्वी समाज की व्यवस्था के लिए प्रमुख पद पर नियुक्त किया। आपने अव्यवस्थित साध्वियों के सिंघाड़ों को व्यवस्थित किया, एक रात में 121 साध्वियों के 23 सिंघाड़े बनाए, और पुस्तकों का संघीकरण किया। आपकी स्वर्गवास संवत् 1927 पौष शुक्ला 8 को बीदासर में हुआ।

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1865, आश्विन मास, चूरू।
पतिजोरावरमलजी ढडढ़ा
पिता का नामजेतरूपजी कोठारी (पिता)।
माता का नामश्रीमती चंदना देवी (माता)
दीक्षासंवत् 1897 मृगसर कृष्णा,
उदयपुर (राज.) में युवाचार्य जीतमलजी द्वारा।
केश लुंचनस्वयं अपने हाथों से किया।
प्रमुखा पदसंवत् 1910 में आचार्य श्री जीतमलजी द्वारा।
स्वर्गवाससंवत् 1927 पौष शुक्ला 8, बीदासर।

साध्वी प्रमुखा गुलाबांजी

(द्वितीय साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा गुलाबांजी का जन्म संवत् 1901 में बीदासर, राजस्थान में हुआ था। आपकी माता का नाम बन्नांजी और पिता का नाम पूरणमलजी बेगवानी था। आपने श्रीमज्जयाचार्य के पास भागवती दीक्षा ग्रहण की। आपने महासती सरदारांजी की देख-रेख में ज्ञान प्राप्त किया और शिक्षा में अच्छी प्रगति की, अपनी सहपाठिनी साध्वियों से आगे निकल गईं। आप में नारी के सहज गुण, जैसे हृदय की कोमलता, भाषा की मधुरता और आंखों की आर्द्रता, तो थे ही, साथ ही प्रमुख व्यक्तित्व का अपूर्व सुयोग भी था। आपमें बाह्य और आंतरिक दोनों सौंदर्य का सहज सुमेल था; शारीरिक सौंदर्य के साथ-साथ मिलनसारिता, विद्वत्ता, सौहार्द, वात्सल्य और निश्छल भाव आपका आंतरिक व्यक्तित्व था। कवि गणेशपुरी जी ने आपको 'सरस्वती की साक्षात् प्रतिमा' कहा।

आपने महासती सरदारांजी और श्रीमज्जयाचार्य के कुशल नेतृत्व में संस्कृत काव्य तथा व्याकरण का अध्ययन किया और तीव्र मेधाशक्ति के कारण शीघ्र ही विदुषी बन गईं। श्रीमज्जयाचार्य जब भगवती सूत्र की राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध टीका कर रहे थे, तो आप एक बार में 6-7 पद्यों को सुनकर लिपिबद्ध कर लेती थीं। आपकी लिपि सुघड़ और स्पष्ट थी, और आपने अनेक ग्रंथों को लिपिबद्ध किया। आपकी वाणी में स्वाभाविक ओज और सहज आकर्षण था, तथा आपके व्याख्यान की जनमानस पर गहरी छाप थी। आपका संगीत चलते हुए पथिक को भी रोक लेता था, और आपका पांडित्यपूर्ण विवेचन भी आकर्षण का निमित्त बनता था।

आपने संवत् 1927 में 'साध्वी प्रमुखा' का कार्य संभाला और 15 वर्ष तक इस पद पर रहीं। आपको समस्त साध्वी समाज का विश्वास प्राप्त था, और आपके अनुशासन में वात्सल्य मूर्तिमान हो जाता था। आप अक्सर कहती थीं कि दोषों का प्रतिवाद करना मेरा दायित्व है। मघवागणी ने आपके लिए फरमाया, "सारणा वारणा प्रतिपालना, करण धणी सावधान। पूज्य भक्त आराधना, डाही धणी बुधवान।।" आपकी स्वर्गवास संवत् 1942 पौष कृष्णा 9 को जोधपुर, राजस्थान में हुआ

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1901, बीदासर (राजस्थान)
पिता का नामपूरणमलजी बेगवानी (पिता)
माता का नामबन्नांजी (माता)
दीक्षासंवत् 1908 फाल्गुन कृष्णा 6,
बीदासर (राज.) में आचार्य श्री जीतमलजी द्वारा
प्रमुखा पदसंवत् 1927 में आचार्य श्री जीतमलजी द्वारा
स्वर्गवाससंवत् 1942 पौष कृष्णा 9, जोधपुर (राजस्थान)

साध्वी प्रमुखा नवलांजी

(तृतीय साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा नवलांजी का जन्म संवत् 1885 में मारवाड़ के छोटे से गांव 'रामसिंहजी का गुड़ा' में, गोलछा गोत्र में हुआ था। उनके पिता का नाम कुशालचन्दजी एवं माता का नाम चन्दना देवी था। आपका विवाह पाली निवासी अनोपचन्दजी बाफणा के साथ हुआ। कुछ ही वर्षों बाद संवत् 1902 में उनके पति का स्वर्गवास हो गया, जिससे उनमें वैराग्य भावना प्रबल हो गई और उन्होंने दीक्षित होने का दृढ़ संकल्प कर लिया। उनका पैतृक परिवार पहले तेरापंथी नहीं था, इसलिए उन्हें दीक्षा की अनुमति नहीं मिली और उन्हें अनेक कष्ट झेलने पड़े। एक बार उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया गया, तभी अचानक तेरापंथी साध्वियां भिक्षा के लिए आईं और कमरे के कपाट अपने आप खुल गए, जिससे पारिवारिक जनों पर बहुत प्रभाव पड़ा और वे तेरापंथ के अनुयायी बन गए। दीक्षा की स्वीकृति भी सहज मिल गई। यह घटना संवत् 1903 की है, जब रामसिंहजी के गुड़ा में तेरापंथ की मान्यता वाला एक भी घर नहीं था।

नवलसती ने अपना प्रथम केशलुंचन स्वयं अपने हाथों से किया, सरदारसती के बाद यह दूसरा ऐसा अवसर था। वे स्वीकृत साधना के प्रति बहुत सजग थीं। गाने की कला, वचन मधुरता, आकर्षक व्याख्यान शैली, स्वाध्याय रुचि और नीति निपुणता उनकी विरल विशेषताएं थीं। संघ और संघपति के प्रति अटूट आस्थाशील रहते हुए उन्होंने ज्ञानार्जन के क्षेत्र में अच्छा विकास किया। साध्वी प्रमुखा गुलाबसती के स्वर्गवास के बाद, पंचम आचार्य मधवागणी ने संवत् 1942 पौष महीने के शुक्ल पक्ष में उन्हें साध्वी प्रमुखा पद पर प्रतिष्ठित किया।

आपने संवत् 1942 से 1954 तक साध्वी प्रमुखा पद पर कार्य किया। इस अवधि में उन्होंने मघवागणी, माणकगणी एवं सप्तम आचार्य डालगणी की उपासना का सुअवसर प्राप्त किया। साध्वीप्रमुखा नवलसती गुरुदृष्टि की सम्यक्‌ आराधना करती हुई साध्वी समाज के लिए आधारभूत बनीं और चतुर्विध संघ में सम्माननीय हुईं। आपकी स्वर्गवास संवत् 1954 आषाढ़ कृष्णा पंचमी को बीदासर में हुआ। हालांकि, एक स्रोत में यह भी उल्लेख है कि आपका स्वर्गवास वि. सं. 1955 आषाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन पांच प्रहर के चौविहार अनशन में हुआ।

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1885, रामसिंहजी का गुड़ा (राजस्थान)
पिता का नामकुशालचन्दजी
माता का नामचन्दना देवी
दीक्षासंवत् 1904 चैत्र शुक्ला 3, पाली (राजस्थान)
केश लुंचनस्वयं अपने हाथ से किया
प्रमुखा पदसंवत् 1942 में आचार्य श्री मघराजजी द्वारा
स्वर्गवाससंवत् 1954 आषाढ़ कृष्णा 5,
बीदासर (राजस्थान) या वि. सं. 1955
आषाढ़ कृष्णा पंचमी

साध्वी प्रमुखा जेठांजी

(चतुर्थ साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा जेठांजी का जन्म संवत् 1901 में चूरू, राजस्थान में हुआ था। आपके पिता का नाम सेवाराम नाहर और माता का नाम श्रीमती कानकंवर था। आप महान्‌ व्यक्तित्व की धनी थीं, जिनकी आंतरिक संपदा शारीरिक संपदा से कहीं अधिक महान्‌ थी। आपका मझला कद, सुडौल शरीर, गौरवर्ण, प्रसन्न वदन और सहज कान्ति आपका बाह्य व्यक्तित्व था, जबकि मिलनसारिता, बड़ों के प्रति विनय, छोटों के प्रति स्नेह, स्वयं के प्रति विश्वास, साधना के प्रति निष्ठा और समर्पण की भावना आपका आंतरिक व्यक्तित्व था। आपने अपने गृहस्थ जीवन के दो दशक बिताए, जिसमें आपको अनेक सुख-दुःखात्मक अनुभूतियां हुईं। उन्नीसवें वर्ष में आपके पति का वियोग हो गया, जिससे आप में विरक्ति के भाव जगे और बढ़े।

आपकी दीक्षा संवत् 1919 में श्रीमज्जयाचार्य के कर कमलों द्वारा संपन्न हुई। आपको श्री सरदार सती की देख-रेख में शिक्षण चला। आपकी रुचि एकनिष्ठ थी, और आपने महासती सरदारांजी के वैयावृत्य (सेवा) और शासन के कुछ कार्यों का दायित्व स्वयं ले लिया। आपने सेवा-व्रत को अपने जीवन का अंग बना लिया और ग्लान साधु-साध्वियों के लिए औषधि का सुयोग मिलाने का कार्य पूर्ण तत्परता से निभाया। आपने नवदीक्षित साध्वियों को समाचारी का समुचित ज्ञान, गुरु भक्ति का महत्त्व, साधना की विधि, और जीवन की महत्ता व पवित्रता का ज्ञान कराती थीं। आप उन्हें कष्ट-सहिष्णुता का मर्म भी समझाती थीं। आप गुरु के इंगित और आकार को समझने में दक्ष थीं, और आपकी गति, मति और स्थिति आचार्य की दृष्टि के अनुसार होती थी। आपको आचार्यों का बहुमान था और तत्कालीन साधु समाज पर भी आपके व्यक्तित्व की छाप थी।

तेरापंथ के सप्तमाचार्य श्रीमद् डालगणी ने आपको साध्वी प्रमुखा पद पर स्थापित किया। इस पद प्राप्ति से पूर्व आपको न विचार था और न पद-प्राप्ति के बाद आपको कोई उल्लास ही हुआ। श्रीमद् डालगणी ने आपकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए कहा, "जेठांजी की सेवाएं अनुकरणीयं हैं। इन्होंने आचार्यों तथा साधु-साध्वियों की बहुत सेवाएं की हैं। इनसे सेवा करना सीखो।" आपने 17 और 2 की तपस्या को छोड़कर उपवास के बाईस दिनों तक चौविहार तपस्या की, जो तेरापंथ शासन में चौविहार तपस्या का उत्कृष्ट उदाहरण है। आपकी कर्तव्य-निष्ठा और गुरुभक्ति सबको सहज ही आकृष्ट कर लेती थी। कालूगणी ने कहा कि जेठांजी की देख-रेख में कितनी भी साध्वियों को रखा जाए, उनकी व्यवस्था के विषय में उन्हें चिन्ता नहीं करनी पड़ती। आपकी स्वर्गवास संवत् 1981 कार्तिक शुक्ला 10 को राजलदेसर में हुआ।

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1901, चूरू (राजस्थान)
पिता का नामसेवाराम नाहर
माता का नामश्रीमती कानकंवर
दीक्षासंवत् 1919 आषाढ़ शुक्ला 3, चूरू (राजस्थान) में
श्रीमज्जयाचार्य द्वारा
प्रमुखा पदसंवत् 1954 में आचार्यश्री डालचंदजी द्वारा
प्रमुख तपस्या22 दिनों का चौविहार तप
स्वर्गवाससंवत् 1981 कार्तिक शुक्ला 10, राजलदेसर

साध्वी प्रमुखा कानकंवरजी

(पंचम साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा कानकंवरजी का जन्म संवत् 1930 में श्री डूंगरगढ़, राजस्थान में हुआ था। आपकी माता का नाम चंदना देवी और पिता का नाम लच्छी रामजी मालू था। आप कालूगणी की संसारपक्षीय मौसी थीं। आपका संरक्षण महासती नवलांजी द्वारा हुआ। आपका जीवन अहिंसा और अभय का समवाय था। आपमें नारी की सुकुमारता के साथ-साथ पुरुष की कठोरता का अनुबंध भी था। आपने अपने पास रहने वाली साध्वियों को सभी प्रकार की कलाएं सिखाईं, और एक बार चातुर्मास काल में 11 बेजोड़ रजोहरण बनाए। आप कुशल अनुशासिका भी थीं, जो अनुशासन करते समय भी हृदय और अपनत्व रखती थीं।

निर्भीकता साध्वी प्रमुखा कानकंवरजी के जीवन का एक विशेष गुण था। विहार के समय उन्हें अनेक बार चोरों-लुटेरों का सामना करना पड़ा पर वे डरी नहीं, कई बार उन्होंने चोरों को भी प्रतिबोध देकर चोरवृत्ति से मुक्त किया। एक बार मंदसौर में, जहाँ रहने का स्थान नहीं मिला, आप गांव के बाहर ठहरीं। आधी रात को दो चोर आए, लेकिन आपने अन्य साध्वियों को नमस्कार मंत्र का जाप करने को कहा और स्वयं उठकर किवाड़ खोल दिया। जब चोरों ने संपत्ति मांगी, तो आपने कुछ पन्ने सामने रखते हुए कहा, "यह है हमारी संपत्ति। इनमें अमूल्य रत्न हैं।" आपने उन्हें गीतिकाएँ सुनाईं, जिनमें मनुष्य के कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेचन था। चोर साध्वी श्री के संगीत से मुग्ध हो गए, उन्हें अपनी भूल का भान हुआ, और वे क्षमा-याचना कर चले गए।

आपको स्वाध्याय में प्रेम था, हजारों पद्य कंठस्थ थे। प्रायः पिछली रात्रि में लगभग तीन बजे उठकर वे चार हजार गाथाओं की स्वाध्याय कर लेती थीं। आपको छः आगम कंठस्थ थे और अनेक थोकड़े, भजन, स्तवन तथा व्याख्यान भी याद थे। आप रात में घंटों इनका स्वाध्याय करतीं और दिन में आगमों का पठन-पाठन चलता था। वाचन के रूप में वर्ष में एक बार 32 आगमों का वाचन हो जाता था। आप सांसारिक झंझटों और अनावश्यक घटनाओं को सुनने-सुनाने से सदा दूर रहती थीं। ऐसा सुना जाता है कि आपको वचन-सिद्धि भी प्राप्त थी। एक बार लाडनूं में, पक्षाघात से पीड़ित श्रावक दुलीचंदजी दूगड़ ने पूछा कब ठीक होंगे, तो उन्होंने कहा, "संभवतः गुरु दर्शन जल्दी ही होंगे," और वे बिना औषध के स्वस्थ हो गए और गुरु-दर्शन किए। आपने शिक्षा, कला, साधना आदि विभिन्न क्षेत्रों में साध्वी समाज की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आचार्य श्री तुलसी ने 'कालूयशोविलास' महाकाव्य में आपके लिए लिखा, "संचालन शैली सुघड़, ज्ञान ध्यान गलतान। कानकंवर गण में लहयों, गुरु कृपा सम्मान।" आपकी स्वर्गवास संवत् 1993 भाद्रपद कृष्णा 5 को राजलदेसर में हुआ।

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1930, श्री डूंगरगढ़ (राजस्थान)
पिता का नामलच्छी रामजी मालू
माता का नामचंदना देवी
दीक्षासंवत् 1944 आश्विन शुक्ला 3, बीदासर में मघवागणी द्वारा
प्रमुखा पदसंवत् 1981, चूरू (राजस्थान) में आचार्य
श्री कालूगणी द्वारा
संबंधकालूगणी की संसारपक्षीय मौसी
स्वर्गवाससंवत् 1993 भाद्रपद कृष्णा 5, राजलदेसर

साध्वी प्रमुखा झमकूजी

(षष्ठ साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा झमकूजी का जन्म संवत् 1944 कार्तिक कृष्णा 13 को थेलासर, रतननगर, राजस्थान में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री रामलाल जी हीरावत और माता का नाम श्रीमती चांदाबाई हीरावत था। जब आप गर्भ में आईं, तो आपकी माता ने स्वप्न में लक्ष्मी को देखा, जिससे कुल के श्रृंगार बनने वाली कन्या के जन्म का संकेत मिला। आपके जन्म से परिवार में जन-धन की वृद्धि हुई और आपत्तियां मिट गईं। अल्पायु में ही आपका विवाह चूरू के पांचीरामजी पारख से हो गया, और आप ससुराल में भी लक्ष्मी के रूप में ग्रहण की गईं। कुछ वर्षों बाद अचानक पति का वियोग हो गया, जिस पर आपके पिता तीन दिन तक मूर्छित रहे। स्वप्न में एक आवाज आई कि यह अप्रत्याशित दुःख आपके जीवन को चमकाएगा और अमरत्व देगा।

एक बार साध्वी श्री गंगाजी ने आपका हाथ देखकर कहा कि आपका जीवन अध्यात्म शासन की सेवा में बीतेगा। आपने स्वप्न में फलों से लदे आम्रवृक्ष को देखा और मन ही मन दीक्षा का संकल्प कर लिया। माता-पिता का स्नेह या सास-ससुर का अनुराग आपको बांध नहीं सका। वि. सं. 1995 में श्रीमद्‌ डालगणी के पास आपने भागवती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा से पूर्व आप पर पति-गृह की रखवाली का भार था, और आपके ज्येष्ठ भाई ने आपकी दीक्षा पर दुःख व्यक्त किया, जो आपके दायित्व के प्रति निष्ठा और कुशलता का परिचायक था।

प्रारंभ से ही आपको कला के प्रति आकर्षण था, और आप प्रत्येक कार्य को कलात्मक ढंग से करती थीं। आप सबसे छोटी बहू होते हुए भी समूचे घर की जिम्मेदारी संभालती थीं। दीक्षा के बाद कला में और अधिक विकास हुआ; आप 15 मिनट में चोलपट्टे को सी सकती थीं और एक दिन में रजोहरण की 25 कलिकाओं को गूंथ सकती थीं। आपने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी अनेक साध्वियों को सूक्ष्म सिलाई सिखाई। आप स्वाध्याय में रस लेती थीं, 6-7 हजार गाथाएं कंठस्थ थीं, जिनका निरंतर आवर्तन-प्रत्यावर्तन, चिंतन-मनन होता रहता था। शैक्ष, ग्लान और वृद्ध की परिचर्या में आपको विशेष आनंद आता था। गुरु-भक्ति आपके जीवन का व्रत था; एक बार विहार करते हुए वर्षा में भीग जाने पर आपने पहले संघ की पुस्तकें संभालीं, तब स्वयं की परवाह की। आपकी चाल तेज थी और आप सभी कार्यों में फुर्तीली थीं; एक बार आप एक घंटे में 6 मील चलकर कालूगणी के नगर प्रवेश के लिए समय पर पहुंचीं। आपकी स्मृति और पहचान अविकल थी; आप वर्षों बाद भी किसी व्यक्ति को उसके स्वर या आकृति से पहचान लेती थीं।

आप सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति थीं। जब आप 'साध्वी प्रमुखा' के पद पर थीं, रात्रि में सोते समय एक काला सर्प आपके पेट पर चढ़ा और धीरे-धीरे नीचे खिसक गया; आपने देखा पर निश्‍चल रहीं और भयभीत नहीं हुईं। आपने पास में सोई हुई साध्वी को जगाकर सावधान किया। हर्ष से विह्वल और शोक से उद्विग्न होने वाले अनेक हैं, पर दोनों अवस्थाओं में समरस व संतुलित रहने वाले विरले ही मिलेंगे। तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्रीमद् कालूगणी का स्वर्गवास होने पर, आपने धैर्य का परिचय दिया, सबमें साहस का मंत्र फूंका और शोक को अभिनव आचार्य पद प्राप्त श्री तुलसीगणी के अभिनंदन में हर्ष में बदल दिया। आपने तेरापंथ शासन की 37 वर्षों तक सेवा की। आपकी स्वर्गवास वि. सं. 2002 में पूर्ण समाधि में हुई। (हालांकि, एक स्रोत में संवत् 2003 आषाढ़ कृष्णा 6, शार्दूलपुर (राजस्थान) दिया गया है।)

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1944 कार्तिक कृष्णा 13,
थेलासर (रतननगर) राजस्थान
पिता का नामश्री रामलाल जी हीरावत
माता का नामश्रीमती चांदाबाई हीरावत
पतिपांचीरामजी पारख, चूरू
दीक्षासंवत् 1995 कार्तिक शुक्ला 5, लाडनूं (राजस्थान) में
आचार्य श्री डालचंदजी द्वारा
प्रमुखा पदसंवत् 1993 भाद्रपद शुक्ला 6, आचार्य श्री तुलसी द्वारा
स्वर्गवाससंवत् 2003 आषाढ़ कृष्णा 6, शार्दूलपुर (राजस्थान)
(अन्य स्रोत में वि. सं. 2002)

साध्वी प्रमुखा लाडांजी

(सप्तम साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा लाडांजी का जन्म संवत् 1960 श्रावण शुक्ला 13 को लाडनूं, राजस्थान में हुआ था। आपके पिता का नाम झूमरमलजी खटेड़ और माता का नाम वदनाजी था। आपका विवाह हीरालालजी बैद से हुआ, परन्तु आप विवाहित जीवन अधिक समय तक नहीं बिता सकीं और पति का वियोग हो गया। इस घटना से आपके जीवन में परिवर्तन आया, वैराग्य भाव बढ़ा और आप दीक्षा के लिए तैयार हुईं। आपकी दीक्षा श्रीमद् कालूगणी के कर-कमलों द्वारा लाडनूं में आचार्य श्री तुलसी के साथ हुई।

श्रीमद्‌ कालूगणी राज के स्वर्गवास के बाद श्रीमद्‌ तुलसी आचार्य पद पर आसीन हुए, और महासती लाडांजी को राज में रखा गया। थोड़े ही वर्षों के बाद साध्वी प्रमुखा श्री झमकू जी का स्वर्गवास हो गया, और उनका काम आचार्य श्री ने महासती लांडांजी को सौंपा। स्थान की उच्चता के साथ-साथ दायित्व की गुरुता भी बढ़ी, और वे सतियों के दायित्व को पूरी तरह से निभाने में पूर्ण सजग रहीं। गंभीरता, धैर्य, विनय, सहनशीलता, समता उनके जीवन की विशेषताएं थीं। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं, पर उनका अनुशासन कौशल बेजोड़ था। वे किसी भी व्यक्ति के चेहरे को देखकर उसकी प्रकृति की मीमांसा करने में बड़ी दक्ष थीं।

साध्वी समाज की कला-वृद्धि एवं ज्ञान-वृद्धि में महासती लाडांजी का अपूर्व योगदान रहा। आचार्य श्री तुलसी ने साध्वी समाज को शिक्षा के नए-नए आयाम दिए, और उन्हें सफल बनाने में साध्वी प्रमुखा लाडांजी सतत प्रयत्नशील रहतीं। उन्हें हर क्षण यही चिन्तन रहता था कि संतों की तरह साध्वियां भी शिक्षित और विद्या संपन्न बनें। आचार्यवर के सतत प्रयत्न एवं साध्वीप्रमुखा लाडांजी की प्रेरणा का ही सुफल है कि साध्वी समाज में हिंदी, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अच्छा विकास हुआ, और कविता, निबंध, श्लोक-रचना आदि विभिन्न दिशाओं में अनेक साध्वियां निपुण बनीं। पद की गरिमा ने महासती लाडांजी में कभी अहं पैदा नहीं किया; छोटे-से-छोटे कार्य को संपादित करके वे अपने में गौरव की अनुभूति करती थीं।

नारी-जागरण की दिशा में सती-प्रमुखा ने जो अथक श्रम किया, वह चिरस्मरणीय रहेगा। 'नया मोड़' अभियान को सफल बनाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने घर-घर जाकर एक-एक बहन के पास पहुंचकर उन्हें मृतक के पीछे रोना, वियोग के बाद काले वस्त्र पहनना, गालियां गाना आदि कुरूढ़ियों का परित्याग कराया। संवत् 2003 तक साध्वी प्रमुखा लाडांजी आचार्य श्री तुलसी के साथ लंबी पदयात्राएं करती रहीं। उसके बाद तीन वर्ष तक आपका असाध्य बीमारी के कारण बीदासर में स्थायी प्रवास रहा। उनकी विलक्षण सहिष्णुता से प्रभावित होकर आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें 'सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति' के रूप में संबोधित किया। संवत् 2027 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को रात्रि तीन बजे अनशनपूर्वक आपने पार्थिव शरीर का त्याग किया।

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1960 श्रावण शुक्ला 13,
लाडनूं (राजस्थान)
पिता का नामझूमरमलजी खटेड़
माता का नामवदनाजी
पतिहीरालालजी बैद
दीक्षासंवत् 1982, पौष कृष्णा 5, लाडनूं (राजस्थान)
में श्रीमद् कालूगणी द्वारा
प्रमुखा पदसंवत् 2003 आषाढ़ कृष्णा 7, आचार्य श्री तुलसी द्वारा
स्वर्गवाससंवत् 2027 चैत्र शुक्ला 13, बीदासर (राजस्थान)

साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी

(अष्टम साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी तेरापंथ की गौरवशाली साध्वी प्रमुखाओं की परंपरा में आठवीं साध्वी प्रमुखा थीं। आपका जन्म संवत् 1998 श्रावण कृष्णा 13 को कलकत्ता में हुआ था। आपकी माता का नाम श्रीमती छोटी देवी और पिता का नाम श्रीमान्‌ सूरजमलजी बैट था। आपका गेहुंआ वर्ण, लंबा कद, चमकीली आंखें, सुगठित शरीर, फुर्तीली चाल और सौम्य आकृति आपका आकर्षक बाह्य व्यक्तित्व था, जबकि आपका आंतरिक व्यक्तित्व इससे कई गुना अधिक समृद्ध और आकर्षक था।

पंद्रह वर्ष की आयु में आपने पारमार्थिक शिक्षण संस्था में प्रवेश किया और चार वर्ष के संस्थाकाल में एक उदीयमान मेधावी छात्रा के रूप में अपनी पहचान बनाई। आपने संस्था के पाठ्यक्रम को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया। उन्नीस वर्ष की अवस्था में, संवत् 2017 आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के ऐतिहासिक अवसर पर केलवा में आचार्य श्री तुलसी के हाथ से आपने दीक्षा ग्रहण की। आचार्यश्री तुलसी के निर्देशन एवं साध्वी प्रमुखा लाडांजी की वात्सल्यमयी छत्रछाया में आपके जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। शैक्षणिक विकास के साथ-साथ आपकी विनम्रता, व्यवहार-कुशलता और अनुशासनप्रियता की साध्वी समाज के दिल पर एक अनूठी छाप जमने लगी। संवत् 2028 गंगाशहर मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्य श्री तुलसी ने आपके तीस वर्षीय युवा कंधों पर विशाल साध्वी-संघ का दायित्व सौंपा। उस समय लगभग चार सौ साध्वियां आपसे दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ थीं।

आचार्य श्री तुलसी ने संवत् 2035 राजलदेसर मर्यादा महोत्सव और युवाचार्य निर्वाचन के ऐतिहासिक अवसर पर साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी को 'महाश्रमणी' के अलंकरण से संबोधित किया। महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा श्री कविता में सहज रुचि रखती थीं, और उनका एक कविता संग्रह 'सांसों का इकतारा' नाम से प्रकाशित हो चुका है। उनकी कविताओं में जीवंत दर्शन की अभिव्यंजना थी, जो केवल शब्दजाल में सिमटी हुई नहीं थीं। संतता और साहित्य का अपूर्व समन्वय उनमें था। लेखन और कवित्व के साथ उनकी वक्तृत्व शैली भी अपनी एक निजी पहचान रखती थी। वे वर्षों से आगम अनुसंधान कार्य में भी संलग्न थीं और आचार्य श्री तुलसी की सन्निधि में बैठकर विशालकाय 'भगवती जोड़' का संपादन किया। उन्होंने अपने मृदु, स्निग्ध, विनम्र और आत्मीय व्यवहारों से छोटी-बड़ी हर साध्वी के दिल को जीता। धर्मसंघ के वृहद्‌ साध्वी समाज के दायित्व का जागरूकता से निर्वहन करते हुए भी उनकी स्वाध्याय, ध्यान व साहित्य सृजन की यात्रा निर्बाध चलती रहती थी।

आचार्य श्री तुलसी ने अपने 54वें पट्टारोहण दिवस पर (वि. सं. 2046) व्यवस्था के क्षेत्र में एक नया प्रयोग करते हुए दो महत्त्वपूर्ण पदों की व्यवस्था की - महाश्रमण व महाश्रमणी। महाश्रमणी पद पर प्रथम चयनित होने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ। इस पद ने उनके दायित्व को विस्तार देते हुए साध्वियों की तरह उन्हें साधुओं की व्यवस्था में भी समभागी बना दिया। वि. सं. 2048 कार्तिक शुक्ला द्वितीया को पूज्य गुरुदेव ने उनकी नेतृत्व क्षमता और विलक्षण विशेषताओं का अंकन करते हुए उन्हें संघ महानिर्देशिका के रूप में नियुक्त किया। इस नियुक्ति ने महाश्रमणी जी के संघीय दायित्व को और अधिक विस्तार दे दिया। उनकी सूझबूझ, मेधा, विनयशीलता, समयज्ञता और व्यवहार कुशलता से पूरा समाज और संघ प्रभावित था। आपकी स्वर्गवास 15 मई, 2022 से दो माह पूर्व हुआ।

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समयसंवत् 1998 श्रावण कृष्णा 13,
कलकत्ता
पिता का नामश्रीमान्‌ सूरजमलजी बैट
माता का नामश्रीमती छोटी देवी
दीक्षासंवत् 2017 आषाढ़ पूर्णिमा, केलवा
(राजस्थान) में आचार्य श्री तुलसी द्वारा
प्रमुखा पदसंवत् 2028 माघ कृष्णा 13, गंगाशहर
(राजस्थान) में आचार्य श्री तुलसी द्वारा।
महाश्रमणी अलंकरणसंवत् 2035 माघ शुक्ला 7, राजलदेसर
(राजस्थान) में आचार्य श्री तुलसी द्वारा
महाश्रमणी पद (औपचारिक)संवत् 2046 भाद्रव शुक्ला 6, लाडनूं
(जैन विश्व भारती) में आचार्य श्री तुलसी द्वारा
संघ महानिर्देशिकासंवत् 2046 भाद्रव शुक्ला 6, लाडनूं
(जैन विश्व भारती) में आचार्य श्री तुलसी द्वारा
स्वर्गवास15 मई, 2022 से लगभग दो माह पूर्व

साध्वी प्रमुखा विश्रुतविभा

(नवम साध्वी प्रमुखा)

साध्वी प्रमुखा विश्रुतविभा जी का जन्म 27 नवंबर 1957 को तेरापंथ की राजधानी लाडनूं के मोदी परिवार में हुआ था। बारहवीं की परीक्षा पास कर आप पारमार्थिक शिक्षण संस्थान में प्रविष्ट हुईं, जहाँ आपको मुमुक्षु सविता नाम मिला। आपने यहाँ लगभग छह वर्ष तक अध्ययन किया। 1980 में समण श्रेणी के प्रवर्तन के बाद, 19 नवंबर को प्रथम बार दीक्षित होने वाली छह मुमुक्षु बहनों में एक नाम मुमुक्षु सविता का था, जिन्हें आचार्य तुलसी ने नया नाम समणी स्थितप्रज्ञा दिया। यहाँ से आपकी यात्रा मुख्य रूप से प्रथम समणी नियोजिका और मुख्य नियोजिका के पदभार तक पहुंची, जो अब साध्वी प्रमुखा के पदभार तक पहुँच चुकी है। 18 अक्टूबर 1992 को आचार्य तुलसी ने आपको साध्वी दीक्षा प्रदान की और नाम दिया साध्वी विश्रुतविभा।

आपका नाम 15 मई, 2022 को सरदारशहर के तेरापंथ भवन में आचार्यश्री महाश्रमण जी द्वारा नवम साध्वीप्रमुखा पद के लिए उद्घोषित किया गया। आपको जप, तप और स्वाध्याय की अद्भुत समन्विति, आत्मनिष्ठा, गुरुनिष्ठा और संघनिष्ठा की सुंदर त्रिपदी, तथा समर्पण, सहिष्णुता और अनुशासनप्रियता की त्रिपथगा कहा जाता है। आप आचार्यश्री तुलसी द्वारा दीक्षित, आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रशिक्षित और आचार्यश्री महाश्रमण जी द्वारा प्रतिष्ठित एक विशिष्ट व्यक्तित्व हैं। आप अप्रमत्त योग की परम साधिका हैं, और अप्रमत्तता (साधना, ज्ञानाराधना, गुरु-इंगित, दायित्व-निर्वहन, आचार-व्यवहार, गुणात्मक विकास के प्रति जागरूकता) आपकी यात्रा का मुख्य सूत्र रहा है।

आपकी स्वाध्यायशीलता उल्लेखनीय है; आप रात्रि में देर से सोएं या कदाचित् जल्दी भी सोना पड़े, पर प्रातः चार बजे से पहले उठकर ध्यान-साधना में लीन हो जाना आपका नियत है, जिसके बाद स्वाध्याय का क्रम शुरू हो जाता है। यह क्रम ब्रह्ममुहूर्त में तब से अविच्छिन्न बना हुआ है, जब आप पारमार्थिक शिक्षण संस्था में थीं। आप प्रतिमाह प्रायः सात उपवास करती हैं और वह भी बड़ी सहजता और अप्रमत्तता के साथ; बेला, तेला आदि करना भी आपके लिए बहुत सहज है। ज्ञान के प्रति आपमें बहुमान का भाव है; आप स्वयं अध्ययन करती हैं, दूसरों को पढ़ाती हैं, अध्ययन की प्रेरणा देती हैं, और अध्ययन करने वालों को प्रोत्साहित करती हैं। जिज्ञासा ज्ञान को बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है, और आप किसी भी अस्पष्ट बात को स्पष्ट न होने तक जिज्ञासा और समाधान का प्रयत्न करती रहती हैं।

आप गुरु इंगित की आराधना के लिए हमेशा सजग और सचेष्ट रहती हैं, और आपके भीतर गुरुभक्ति का भाव उच्चता लिए हुए है। आचार्यवर ने काठमांडो की यात्रा के प्रसंग में आपकी गुरुभक्ति और गुरुसेवा के भाव को उल्लेखनीय बताया। आपने साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी की अनुपस्थिति में अनेक महत्त्वपूर्ण यात्राओं (काठमांडो, शिलोंग, जगदलपुर, कोटा, रायपुर से इंदौर) के दौरान गुरु इंगित की आराधना करते हुए सारी व्यवस्थाओं का बड़े कौशल के साथ संचालन किया। आचार्यश्री महाश्रमण जी ने समय-समय पर आपको अनेक कार्य और जिम्मेदारियां सौंपीं, जैसे महाप्रज्ञ वाङ्मय का संपादन, आचार्य महाप्रज्ञ जी की कम से कम 21 पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद, महाप्रज्ञ श्रुताराधना पाठ्यक्रम का संचालन, 'अमृतम्' ग्रंथ का समायोजन, 'कर्मवाद' पर ऑनलाइन भाषण शृंखला, आदि, जिनका आपने निष्ठा से निर्वहन किया। समण श्रेणी में भी आपको जो दायित्व मिला, आपने उसका बखूबी निर्वहन कर गुरुओं का विश्वास अर्जित किया और अपनी कार्यनिष्ठा से नई पहचान बनाई।

आपकी आचार विषयक जागरूकता श्लाघनीय है; आप जो करणीय है उसकी क्रियान्विति के प्रति जितनी जागरूक हैं, अकरणीय को न करने के प्रति भी उतनी ही सजग हैं। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी अनेक बार कहती थीं कि मुख्य-नियोजिका जी छोटे से छोटे कार्य के लिए भी पहले आज्ञा लेती हैं। आप साधु के मार्ग में चलते समय बात न करने के नियम का भी बड़ी दृढ़ता से पालन करती हैं; कभी बोलना आवश्यक हो जाए तो पाँव रोककर ही बात करती हैं और विहार के समय प्रायः मौन ही रहती हैं। आपकी सोच ऊँची और सकारात्मक है; आप हर स्थिति में संयत और संतुलित रहते हुए हमेशा आत्मविकास के सोपानों पर आरोहण करती हैं।

आपने समण श्रेणी में बारह वर्षों तक अपनी साधना, ज्ञानाराधना के साथ व्यवस्थाओं का कुशलता से संचालन किया और अनेक व्यक्तियों के निर्माण में योगभूत बनीं। आपने देश-विदेशों की यात्राएँ कर संघीय प्रभावना का अध्याय सृजित किया। समणी काल में आपने धर्म प्रभावना के उद्देश्य से अमेरिका, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, इटली, इंग्लैंड, बैंकॉक, कनाडा, होलैंड, हॉन्गकॉन्ग सहित कई देशों की यात्राएं कीं। श्रेणी आरोहण के बाद आपको विशेष रूप से आगम अध्ययन, आगम कार्य में नियोजित किया गया, और आचार्यश्री महाप्रज्ञ के साहित्य से जुड़कर कार्य करने का अवसर मिला।

आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने आपको समण श्रेणी की मुख्य नियोजिका बनाकर श्रेणी की देखरेख की जिम्मेवारी सौंपी। कुछ ही समय पश्चात् साध्वी समाज में साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी के बाद आपको द्वितीय स्थान पर नियुक्त कर आपके गौरव को मानो शतगुणित कर दिया। आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आपको साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी की अनंतर सहयोगी बनाकर मुख्य नियोजिका के पद पर प्रतिष्ठित किया। शासनमाता के महाप्रयाण के मात्र दो माह बाद पूज्यवर ने आपको साध्वीप्रमुखा के पद पर नियुक्त करके साध्वी समाज का सिरमौर बना दिया। वर्तमान में आप आचार्य श्री महाश्रमण के सानिध्य में विशाल साध्वी समुदाय को संभाल रही हैं।

जीवन संबंधी तथ्य

जन्म समय27 नवंबर 1957, मोदी परिवार, लाडनूं
प्रारंभिक नाममुमुक्षु सविता (पारमार्थिक शिक्षण संस्थान में)
प्रथम समणी दीक्षा19 नवंबर 1980, नाम समणी स्थितप्रज्ञा,
आचार्य तुलसी द्वारा
दीक्षा18 अक्टूबर 1992, नाम साध्वी विश्रुतविभा,
आचार्य तुलसी द्वारा
प्रमुख पूर्व पदप्रथम समणी नियोजिका,
समण श्रेणी की मुख्य नियोजिका,
साध्वी समाज में साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी
के बाद द्वितीय स्थान
प्रमुखा पद15 मई 2022, आचार्यश्री महाश्रमण जी द्वारा
अंतर्राष्ट्रीय यात्राएँ
(समणी काल में)
अमेरिका, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, इटली, इंग्लैंड,
बैंकॉक, कनाडा, होलैंड, हॉन्गकॉन्ग
सहित कई देश
विशेष कार्यआगम अध्ययन व साहित्य संपादन