
आचार्य श्री भिक्षु (1726–1803), जिन्हें ‘भीखणजी’ और ‘स्वामीजी’ के नाम से भी जाना जाता है, जैन धर्म के इतिहास में एक विलक्षण व्यक्तित्व थे। उन्होंने अठारहवीं शताब्दी में एक धर्म-सुधार आंदोलन की शुरुआत की, जिसने तेरापंथ नामक एक नवीन, संगठित और अनुशासित जैन संप्रदाय को जन्म दिया। उनका जीवन संघर्ष, साधना और सिद्धियों का ऐसा समन्वय था जिसने उन्हें एक युगांतरकारी संत के रूप में स्थापित किया।
स्वामीजी ने न केवल अपने समय के समाज और धर्म के प्रचलित ढाँचों को चुनौती दी, बल्कि हर युग के लिए सत्य, अनुशासन और आत्मसंयम पर आधारित जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया।
आचार्य भिक्षु ने केवल नया संप्रदाय नहीं बनाया—उन्होंने एक विचारधारा, एक सिद्धांत, एक गुरु और एक उद्देश्य पर आधारित एक नया धार्मिक ढाँचा खड़ा किया। यह व्यवस्था स्पष्ट, सुव्यवस्थित और पूर्णतः अनुशासित थी।
उनका मानना था कि:
उन्होंने धर्म में व्याप्त बिखराव और स्वार्थ को समाप्त करने के लिए "आत्म-शिष्यत्व" की अवधारणा का खंडन किया और "एक आचार्य" की नीति को स्थापित किया।
उनका जीवन स्वयं इन सिद्धांतों का जीवंत उदाहरण था—सहजता, सादगी, संयम, और अहिंसा की उत्कृष्टता।
आचार्य भिक्षु अनुशासन के पालन में अत्यंत दृढ़ थे। उनके प्रिय शिष्य भारमल जी को उन्होंने आदेश दिया कि कोई भी दोष बताने पर तीन दिन का उपवास (तेला) करना होगा, भले ही दोष वास्तविक न हो—यह कर्मों की शुद्धि का माध्यम होगा।
एक अन्य प्रसंग में, उन्होंने मुनि वेणीराम जी को यह सिखाया कि संघ में छोटी-सी भी असावधानी गंभीर परिणाम ला सकती है। उनके अनुसार, संयमहीन गुरु वैसा ही है जैसे अंकुशविहीन हाथी या लगामविहीन घोड़ा।
स्वामीजी सांसारिक सुख, सम्मान और अधिकार से कोसों दूर थे। उन्होंने जो कहा, वह स्वयं पहले जिया। उनके जीवन ने दिखाया कि आत्म-अनुशासन, त्याग और करुणा से युक्त जीवन ही दिव्यता की ओर ले जाता है।
आचार्य भिक्षु केवल एक संप्रदाय के प्रवर्तक नहीं थे—वे एक चेतना, एक क्रांति और एक जीवन-दर्शन के संस्थापक थे। उनके द्वारा स्थापित तेरापंथ न केवल जैन समाज, बल्कि मानवता के लिए सत्य, अहिंसा, अनुशासन और आत्मसंयम का प्रेरक उदाहरण है।
विक्रम संवत 1816 में उन्होंने स्थनकवासी परंपरा से अलग होकर आत्मानुशासन और शुद्ध आचरण की पुनःप्रतिज्ञा की। आषाढ़ पूर्णिमा, संवत 1817 को उनके इस नवसंकल्प से तेरापंथ संप्रदाय की औपचारिक स्थापना हुई।

जैन धर्म के इतिहास में जब भी आदर्श आचार्यों की बात होती है, तब आचार्य भारमलजी का नाम विशेष सम्मान और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। वे तेरापंथ संप्रदाय के द्वितीय आचार्य थे, जिन्होंने न केवल इस परंपरा की संस्थापक भावनाओं को बनाए रखा, बल्कि उसे और भी गहराई और दृढ़ता प्रदान की।
केलवा में आचार्य भिक्षु के प्रथम चातुर्मास के समय एक सांप उनके चरणों से लिपट गया, फिर भी वे विचलित नहीं हुए। आचार्य भिक्षु को नवकार मंत्र का उच्चारण कर सांप को हटाना पड़ा। यह घटना उनके निर्भीक स्वभाव की साक्षी है।
वे अत्यंत अनुशासित, आत्मनिष्ठ और अध्ययनशील थे। उन्होंने पंच लाख श्लोकों की सुंदर लिपियों में नकल की, जिनकी प्रामाणिकता आज भी मानी जाती है। आचार्य भिक्षु किसी भी नये नियम या आचार का पहला प्रयोग उन पर करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि भारमलजी उस नियम को पूर्ण रूप से निभा सकते हैं। वे अक्सर खड़े होकर उत्तराध्ययन सूत्र जैसे ग्रंथों का पाठ करते थे।
आचार्य भारमलजी ने जीवन के अंतिम क्षणों में भी संयम, उपवास और तप का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। विक्रम संवत 1878 की माघ कृष्ण अष्टमी को राजनगर (मेवाड़) में उन्होंने समाधि ली।
आचार्य भारमलजी का जीवन आज भी सत्य, साधना और समर्पण का आदर्श बनकर हम सभी को प्रेरित करता है। उन्होंने तेरापंथ की नींव को इतनी मजबूती दी कि यह परंपरा आज तक धर्म, तप और अनुशासन की दिशा में अग्रसर है।

जैन तेरापंथ की यशस्वी आचार्य परंपरा मेंआचार्य रायचंदजी ‘ऋषिराय’एक ऐसे दिव्य व्यक्तित्व थे, जिनकी साधना, साहस और संघ-समर्पण ने तेरापंथ को एक नई दिशा दी। वेतेरापंथ धर्मसंघ के तृतीय आचार्यथे और उनका जीवनगहन ज्ञान, तपशक्ति और निडर नेतृत्वका विलक्षण उदाहरण था।

जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ की महान आचार्य परंपरा मेंचतुर्थ आचार्यश्री जीतमलजी का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। उन्हें 'जयाचार्य' के रूप में जाना जाता है, और यह नाम तेरापंथ के इतिहास में साहित्य, संगठन और साधना के त्रिसूत्रीय समर्पण का पर्याय बन चुका है। आचार्य भिक्षु के बाद यदि किसी ने संघ को सबसे प्रभावी और दूरगामी दिशा दी, तो वह निःसंदेह जयाचार्य ही थे। उनका जीवनगहन ज्ञान, प्रखर वैराग्य, विलक्षण संगठन-शक्ति और विपुल साहित्य-सर्जनाका अनुपम संगम था।

आचार्य मघवागणी, जिन्हें श्रद्धा से 'पंडित' और 'श्रीपंच' के नामों से भी जाना जाता है, तेरापंथ धर्मसंघ के पाँचवें आचार्य थे। वे ऐसे युग-पुरुष थे जिनका जीवन बहुआयामी प्रतिभाओं, संगठनात्मक सूझ-बूझ और अपूर्व सरलता का संगम था।

कुछ जीवन इतने गहरे होते हैं कि उनकी लहरें समय की सीमाओं को पार कर जाती हैं। ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे—आचार्य माणकगणी, जिन्हें स्नेहपूर्वक माणकलाल जी कहा जाता है। उनके जीवन की अवधि भले ही छोटी रही, परंतु उसकी गहराई ने तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी।

तेरापंथ धर्मसंघ के सातवें आचार्य के रूप में आचार्य डालचन्द (डालगणि) का व्यक्तित्व एक अद्भुत समन्वय था – जिसमें गहराई थी ज्ञान की, ऊँचाई थी संकल्प की, और स्पर्श था करुणा का। उनका जीवन एक ऐसे साधक का जीवन था, जिसने कठिन तप, गहन अध्ययन और निर्भीक नेतृत्व के द्वारा तेरापंथ परंपरा को स्थायित्व और विस्तार दोनों प्रदान किए।

तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टम आचार्य, आचार्य श्री कालूगणि, एक ऐसे विलक्षण साधक और नेतृत्वकर्ता थे, जिनके २७ वर्षीय शासनकाल को तेरापंथ के इतिहास में "स्वर्णिम युग" के रूप में आदरपूर्वक स्मरण किया जाता है। उनका जीवन तप, त्याग, समर्पण और अप्रमत्त साधना का प्रतीक बन गया।

भारत की संत परंपरा में कुछ नाम ऐसे हैं जो धर्म के पार जाकरमानवता की चेतनाको स्वर देते हैं।आचार्य श्री तुलसी—तेरापंथ धर्मसंघ के नवम आचार्य—ऐसे ही एक युगप्रवर्तक संत थे जिन्होंने धर्म को मात्र पूजा-पाठ की परिधि से बाहर निकालकर सामाजिक नैतिकता, अध्यात्म, अहिंसा और विचार-क्रांति से जोड़ा।
उनका जीवन न केवल तेरापंथ समाज के लिए, बल्कि समस्त भारतवर्ष और विश्व समुदाय के लिएदिशा-दर्शक दीपस्तंभरहा है।

भारत की संत परंपरा में अनेक ऐसे ऋषि हुए हैं जिन्होंने मानवता के उत्थान हेतु जीवन का प्रत्येक क्षण समर्पित कर दिया। आचार्य महाप्रज्ञ एक ऐसे ही महामानव थे, जिनके व्यक्तित्व में विद्वत्ता, साधना और करुणा का अद्भुत समन्वय था। वे एक विचारक, योगी, कवि, शिक्षक और समाज-सुधारक — सभी कुछ एक साथ थे।

तेरापंथ धर्मसंघ केग्यारहवें आचार्य, आचार्य महाश्रमणजी एक ऐसा विरल व्यक्तित्व हैं, जिनकी पहचानशांति, प्रज्ञा और निस्वार्थ सेवाके रूप में होती है। उनका जीवनआचार्य श्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञकी आध्यात्मिक छाया और शिक्षा से सिंचित हुआ है। वे उन साधकों में हैं जिनमेंयोग्यता, विनम्रता और दृढ़ संकल्पका त्रिवेणी संगम है।